एक डर, जो वुहान से मेरे देश, दिल्ली और फिर सड़क के उस पार से होते हुए मुझ तक पहुंच गया

 मुश्किल से एक महीने पहले की बात है। मैं एक इंटरनेशनल पब्लिकेशन में छपी एक औरत की डायरी पढ़ रही थी। चीन के वुहान शहर की एक ऊंची इमारत के किसी फ्लैट में रह रही एक सिंगल वुमन की डायरी। 'शहर में एक खतरनाक वायरस ने हमला कर दिया है और एक के बाद एक जिंदगियां निगले जा रहा है। पूरा शहर सील हो चुका है। लोगों को घरों में बंद कर दिया गया है। न कोई घर से बाहर जा सकता है, न कोई बाहर से घर में आ सकता है। सिर्फ खबरें आ रही हैं और लगातार आ रही हैं। आज 300 लोग मर गए, आज 500 मर गए, आज 700 लोग मर गए। हर सुबह के साथ संख्या बढ़ती जाती है। कोई नहीं जानता कि अगला नंबर किसका होगा। 


वो अपने घर में अकेली है। जब चीन के वुहान में कोरोना पॉजिटिव  का पहला केस मिला था, वो उसके पहले भी उस घर में अकेली ही रहती थी। लेकिन घर के बाहर एक भरी-पूरी दुनिया थी। घर से दफ्तर का रास्ता था। बस, ट्रेन, मेट्रो में लोगों की भीड़ थी। ऑफिस में लोग थे। आप मुस्कुराते थे, बात करते थे, साथ काम करते थे। लेकिन लॉकडाउन ने दुनिया के अकेले लोगों को अचानक और ज्यादा अकेला कर दिया। उस डायरी के साथ कुछ स्केचेज भी थे, जिसमें वो घर में अकेली  एक्सरसाइज कर रही है, हाथ में कॉफी का मग लिए सीलबंद खिड़की पर अकेली बैठी बाहर देख रही है। बाहर कुछ नहीं है, सिवा दूर से नजर आती कुछ इमारतों और रोज थोड़ा और उदास हो रहे आसमान के।'


जिस दिन मैंने ये डायरी पढ़ी, उसी दिन 40 किलोमीटर गाड़ी चलाकर मैं अपने दोस्तों से मिलने गई थी। हमने बाहर खाना खाया, घूमे और ढेर सारी बातें की। हमें पता था कि कोई कोरोना वायरस फैला है दुनिया में, लेकिन सच पूछो तो वो जिस दुनिया में फैला था, वो हमारी दुनिया नहीं थी। दूर देश की कहानियां कितनी भी सच्ची हों, वो अपनी नहीं लगतीं। दूरी तो इतनी है बीच में। वुहान बहुत दूर था।


फिर वक्त गुजरा। पता चला वो खतरनाक वायरस उस देश तक आ पहुंचा है, जो मेरा देश है। केरल में मिला था पहला पॉजिटिव केस। केरल तो अपना ही था लेकिन वो अपना भी बहुत दूर था। दिल्ली से दो हजार आठ सौ किलोमीटर दूर। बहुत होती है ये दूरी ये महसूस करने के लिए कि ये कोई बहुत अपनी, बहुत सगी बात है।


कुछ ही दिन गुजरे कि देश के तमाम हिस्सों से खबरें आने लगीं। दिल्ली में भी किसी पर टूट पड़ा था वो वायरस। पता चला 9 लोग कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। एक की मौत भी हो गई। दिल्ली अब भी दूर थी। मेरे घर से बहुत दूर। ये सबकुछ मैं अब तक अफसानों की तरह पढ़ रही थी।


फिर, तीन दिन पहले बगल की सोसायटी के एक फ्लैट में रहने वाले पति-पत्नी कोरोना पॉजिटिव पाए गए। वुहान से चलकर वो वायरस अब बगल की सोसायटी तक आ पहुंचा था। हर दिन के साथ दूरी कम होती जा रही थी, लेकिन वो अब भी सड़क के उस पार था।


अब, कल सुबह ही ये हुआ। लॉकडाउन के बीच अचानक खबर आई कि मेरी सोसायटी की एक बिल्डिंग में रहने वाले दो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। अचानक हड़कंप सा मच गया। सारी दुकानें बंद हो गईं। सोसायटी को पूरी तरह लॉकडाउन कर दिया गया। पुलिस और एंबुलेंस का सायरन गूंजने लगा। पुलिस माइक लेकर पूरी सोसायटी और आसपास के इलाकों में घूम-घूमकर एनाउंसमेंट करने लगी कि इस सोसायटी को लॉकडाउन कर दिया गया है। यहां दो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं।


सिर्फ दस कदम की दूरी पर है वो बिल्डिंग, जिसके एक फ्लैट में रहने वाली दो महिलाएं आज जिंदगी और मौत से जूझ रही हैं। दूर देश की ये कहानी अब मेरे इतने करीब आ चुकी है कि उससे नजरें फिराना मुमकिन नहीं। हर अगली सुबह के साथ वो डरावना वायरस थोड़ा और करीब आता जा रहा है। मैं डरकर घर की हर चीज साफ करने लगती हूं। दरवाजे के हैंडल से लेकर फर्श, किताबें, आलमारी तक। बार-बार अपने हाथ धोती हूं। मुझे डर है कि वो खतरनाक वायरस यहीं कहीं न छिपा बैठा हो। कहीं उसका अगला शिकार मैं न होऊं।


मैं पिछले दस दिनों से घर से बाहर नहीं निकली हूं। खाने-पीने की हर वो चीज, जो जमा नहीं की जा सकती, खत्म हो गई है। सिर्फ राशन बचा है। मैं अगला एक महीना उसी पर बसर करने वाली हूं। सोसायटी की महिलाओं का वो व्हॉट्स एप ग्रुप, जो मैंने एक साल के लिए म्यूट कर रखा था, अब हर सेकेंड उसके नोटिफिकेशन आते हैं और मैं घबराकर देखने लगती हूं कि अब क्या हुआ। महामारी की, मौत की, दुख और आतंक की वो कहानी अब मेरी कहानी हो चुकी है। मैं उसकी एक पात्र हूं, रोज अपनी भूमिका को नए शब्दों में लिखती हुई। अपने-अपने घरों में बंद हम सब इस वक्त बहुत डरे हुए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ साथ मिलकर डरे हुए हैं और कुछ बिल्कुल अकेले ठीक वैसे ही जैसे वुहान की वह स्त्री जो अकेली थी।


4 साल पहले एक कोरियन फिल्म देखी थी- “ट्रेन टू बुसान।” उस फिल्म में भी ऐसा ही एक जॉम्बी वायरस एक शहर पर हमला कर देता है। एक ट्रेन है, जो सियोल से बुसान जा रही है। उस ट्रेन में एक छोटी बच्ची अपने पिता के साथ बैठी है। उसके माता-पिता का तलाक हो चुका है। बच्ची ने पिता से बर्थडे गिफ्ट में ये मांगा है कि उसे उसकी मां से मिला दिया जाए। शहर पर जिस वायरस का हमला हुआ है, वो वायरस किसी तरह उस ट्रेन में घुस जाता है। एक-एक कर ट्रेन में सफर कर रहा हर व्यक्ति वायरस की चपेट में आ जाता है। ट्रेन जिस भी शहर से होकर गुजरती है, हर वो शहर जल रहा है। वायरस ने किसी को नहीं बख्शा। ट्रेन में वहशत का माहौल है। खुद को बचाने के लिए लोग एक-दूसरे को मारने लगते हैं। अंत आते-आते ट्रेन में सवार सब लोग मर जाते हैं। अंत में सिर्फ वो छोटी बच्ची और एक प्रेग्नेंट औरत ही बचते हैं।


2016 में आई दक्षिण कोरिया की ये फिल्म एक काल्पनिक कहानी है, लेकिन हर कल्पना का कोई न कोई सिरा किसी यथार्थ से जरूर जुड़ा होता है। बात महज एक वायरस की नहीं है। बात उस समाज की, उस दुनिया की है, जो हम सबने मिलकर बनाई है। ग्लोबलाइजेशन ने पूरी दुनिया को एक तार से जोड़ दिया तो इस तार से होकर सिर्फ सामान, समृद्धि, पैसा और सफलता ही पूरी दुनिया में नहीं फैलेगा। तकलीफें और बीमारियां भी फैलेंगी। वायरस भी फैलेंगे। वायरस भी महज इत्तेफाक नहीं है। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जिस तरह का खिलवाड़ इंसानों ने किया है, उसके नतीजे हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां और खतरनाक रूप में देखेंगी। प्रकृति ने हमें जो अपार संपदा बख्शी थी, हमें उसका उपयोग करना था, उपभोग नहीं। और ये भी नहीं भूलना था कि उसका मालिक कोई नहीं है। कोई इंसान, कोई विज्ञान इतना बलशाली नहीं हो सकता कि वो प्रकृति पर आधिपत्य जमा ले। उसे अपने इशारों पर नचाने लगे क्योंकि अगर वो प्रतिशोध लेने, अपनी जगह खोई जगह वापस मांगने पर आई तो आपकी सत्ता, आपका बल, आपकी संपदा काम नहीं आएगी। प्रिंस चार्ल्स से लेकर बोरिस जॉनसन तक सब जद में होंगे। और आज यही हुआ है।


वुहान कभी इतना दूर नहीं था, जितना दूर से हमें लग रहा था।